सावन के सुहाने पल में कोई भिगे बदन चला
खुद को मिटाकर महेक लेकर कोरे बदन चला
तुफान मे लिपटी यादों के सिले कोई मिला था
जैसे बादल से निगलती बुंदो में भीगते बदन चला
सारे शहर में दमाम सा उठा स्वयं की पहेचान का
गिला नही था दर्द पैदा होने का आसान गोरे बदन चला
कांति वाछाणी
No comments:
Post a Comment